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वो अनूठा बचपन ….. भूली बिसरी यादें

Meri Kalam Se
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कल की वो सुनहरी सुबह , ठंडी ठंडी हवा के झोके, पक्षियों की सुरीली आवाज़े  , रंग बिरंगे फूल …. इस दृश्य ने मेरी भूली बिसरी यादों को खंगालकर रख दिया.

मै सुबह सैर पर निकली ही थी कि  सामने, बस स्टॉप पर बस का इंतजार करते बच्चे दिखाई दिए, उन्हें देखकर अनायास ही मेरे पैर रुक गए. उनकी क्रीडाओ को  देखते हुए मै कब सामने राखी बेंच पर बैठ गई और अपने बचपन में पहुच  गयी, मुझे एहसास ही नहीं हुआ. वो मीठा बचपन…. कितना नादान, भोला, चंचल, शरारती, अल्ल्हड़, मासूम, मस्ती भरा होता है.

मै कुछ १० वर्ष की थी. मेरा घर अंग्रेजो के समय  का बहुत विशाल भवन था, जो मेरे पिता को सरकार की तरफ से मिला था. बंगले में हमारा अपना निजी ड्राइव था. बंगले के चारों ओर बगीचा और  बगीचे में रंग बिरंगे फूल, व् अमरुद के वृक्ष लगे थे. अमरुद के वृक्ष में हमेशा पक्षियों का बसेरा रहता था. मुख्य गेट पर फूलों से लदी मालती की झूलती लताये  खुशबू बिखेरती  थी.

मुझे अभी भी याद है वो पेड़ों की झुरमुठ के बीच, मै व् मेरी बहिन सारा दिन लड़ते-खेलते रहते थे. तितली पकड़ना, परिंदों के पंख इकट्टे करना, रस्सी कूदना हमारे पसंदीदा खेल थे. मेरा, मेरी बहिन से ऐसा रिश्ता था कि, हम में से किसी को भी सहेली की कमी महसूस नहीं हुई. हम दोनों एक दूसरे के लिए पर्याप्त थे.

अपनी इन्ही यादों को समेटे, विचार मग्न होकर मै बस स्टॉप में खेलते बच्चो को निहार रही थी, अचानक बस की होर्न से मेरी यादों के वेग में रूकावट आ गयी. देखते ही देखते बच्चे बस में चढ़ गए और बस चली गयी. आस-पास फिर सन्नाटा छा  गया. सन्नाटे की वजह से  मेरी यादों के वेग को  तारतम्यता मिल गई, और मै वही बैठी-बैठी फिर से बचपन की ओर कूच कर गयी.

उसी मीठे बचपन की एक हसीन घटना स्मरण में आती है…

दोपहर का समय था, सूरज चढ़ चुका था. माँ अपने कामों में व्यस्त थी. मै अपनी छोटी बहिन के साथ छत पर खेल रही थी. बीच-बीच में ठंडी हवा के झोंके हमे स्पर्श कर रहे थे. हमारे पास एक ही रस्सी थी, जिसे हम बारी-बारी से कूद रहे थे. अचानक किसी बात पर मेरी बहिन रूठ गई. मैंने उसे मनाना चाहा, पर उसने मेरी एक न सुनी, शायद इसलिए कि रस्सी उसकी थी. मै स्वाभाव से ज्यादा शरारती, व् चंचल थी. मैंने उस पर थोडा दबाव डालने व् तानाशाही करने की कोशिश की. वह स्वाभाव से मासूम व् शांत होने के कारण कुछ नहीं बोल पाई, और कुछ ही पलों में  हमने  बाते करना बंद कर दी.  उसका मुझसे बातें न करना, मुझे बहुत चुभ रहा था, फिर भी हम दोनों छत पर साथ-साथ  घूमते रहे. अचानक मुझे नीचे लगा अमरूद का पेड़ दिखाई दिया. मै अपनी बहिन को छोड़ कर नीचे पेड़ की तरफ चल पड़ी. नीचे पेडो की झुरमुठ के बीच एक सबसे ऊँचे पेड़ पर अमरुद देखकर मेरा मन हुआ कि मै उस पेड़ पर चढ़ जाऊ, और अमरुद तोड़कर बहिन को चिध्हाऊ.  मैंने ऐसा ही किया, और पेड़ पर चढ़ गयी. अमरूद अभी भी मेरी पहुँच से काफी दूर था. मैंने और ऊपर जाना चाहा, काफी संघर्षों के बाद मै अमरुद तक पहुँच गयी. अमरुद तोड़ते समय मुझे आजू-बाजू और अमरुद दिखे, मैंने उन्हें भी तोड़ लिए  और अपनी फ्रौक  की झोली बनाकर, अमरूदों को सुरक्षित अपनी कमर में बांध लिए.  अब नीचे उतरने के लिए मैंने अपनी दृष्टि चारों तरफ घुमाई ही थी, कि नीचे मुझे मेरी बहिन, हाथ में रस्सी लिए, टहलती दिखाई दी. उसे देखकर मेरी अकड वापस आ गयी और मै उसे जलाने के लिए इतराने लगी. मेरे ऐसा करने से उस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई. थोड़ी देर बाद मैंने नीचे उतरने का मन बनाया, परन्तु मै इतना ऊपर आ चुकी थी कि उतर पाना मेरे लिए आसन काम न था.  फिर भी मैंने उतरने की कोशिश की. कई कोशिशों के बावजूद भी मै उतर नहीं पा रही थी. मेरी बहिन इस बात को अच्छी तरह समझ रही थी कि नीचे उतर पाना मेरे लिए मुश्किल हो रहा है, फिर भी वह मेरी मदद करने आगे नहीं आई. इससे मझे और खीझ हो रही थी. अकड में मैंने भी उससे सहायता नहीं मांगी, और प्रयास करती रही. मैंने माँ व्  नौकरों को आवाज़ लगाई, पर शायद कोई न सुन सका. सारे प्रयासों के बाद, मुझे डर लगने  लगा.  मेरी अकड कम होने लगी, और एहसास होने लगा कि अब इस मुसीबत से मुझे मेरी बहिन ही निकाल सकती है, पर उससे बोलने के लिए फिर भी मेरा मन आगे-पीछे होता रहा. यदि उससे बोलती, तो मेरा घमंड चूर होता, पर न बोलती तो मुसीबत से कैसे निकल पाती. किसी तरह मन पक्का करके मैंने उसे आवाज़ दे ही दी. उसका नाम संबोधन करने पर भी उसने मेरी बात का जवाब नहीं दिया. मैंने फिर आवाज़ लगाई. इस बार उसने ऊपर मेरी तरफ देखा, पर कुछ भी न बोली. फिर कड़े शब्दों में  मैंने कहा, “हाँ मै, तुमसे ही बोल रही हूँ.”…. फिर वह ऊपर देखकर बोली..”क्यों तू तो मुझसे बात नहीं कर रही है न.”…उसका यह वाक्य सुनते ही मेरा घमंड फिर जाग उठा. मैंने कहा, “मै तुझसे बात थोड़े ही कर रही हूँ, हो सकता है भगवान् ने इस पेड़ का नाम भी वही रखा है जो तेरा है.”... वह बेचारी फिर कुछ न बोल सकी, और शांत हो गई. कुछ समय चुप्पी सधी रही. करीब १५ मिनिट के बाद मै अपने आसुओ के बांध को न रोक सकी और रोते हुए उसका नाम संबोधित करके उससे बोली….” मेरी बहिन, मै तुझसे ही बात कर रही हूँ, मेरी सगी बहिन, please मेरी बात सुन ले.” अब तो मेरा सारा घमंड टूट कर चूर हो चुका था. मेरा ऐसा कहते ही, वह पलट कर रोते हुए बोली…” हाँ दीदी, बता मैं क्या करू, कि तू नीचे उतर सके.”

हम में से किसी की भी बुद्धि नहीं नाची, कि घर से माँ को बुला लाये. पर हम रोते रहे और उपाय सोचते रहे. अचानक खुश होकर मेरी  बहिन बोली…” दीदी, एक उपाय है.”मैंने खुश होकर पूछा… “क्या???”. मेरी तरफ रस्सी का एक छोर बढ़ाते हुए वह बोली…“दीदी, तू ये  रस्सी पकड़ ले, जैसे पिक्चर में दिखाते है, और मै तुझे खीच लेती हूँ.” सुनते ही मुझे बड़ी तेज हंसी आ गई और मैंने उसे वास्तविकता समझाई कि ऐसा करने से मै नीचे गिर जाउंगी. और हम दोनों हंसने लगे, बातो का सिलसिला फिर शुरू हो गया. शायद हम भूल गए कि मुझे नीचे उतरना है.

थोड़ी देर बाद माँ आई , उन्होंने सारी स्थिति समझी और मुझे उतार लिया.

अचानक कार  के होर्न की आवाज़ से मै चौंक गयी… विचारो और यादो का सिलसिला टूटा, और मुस्कुराते हुए, मै घर की ओर चल पड़ी. चलते-चलते यही सोचती रही कि “वो अनूठा बचपन”… कितना भोला होता है. ये बचपन, जीवन के सभी पड़ावों में सबसे सुन्दर व् सरल पड़ाव है.

अभिलाषा शिवहरे गुप्ता

अप्रैल २६…२०१२

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